एक मछुआरा था । उस दिन सुबह से शाम तक नदी में जाल डालकर मछलियाँ पकड़ने की कोशिश करता रहा , लेकिन एक भी मछली जाल
में न फँसी ।
जैसे -जैसे सूरज डूबने लगा , उसकी निराशा गहरी होती गयी । भगवान का नाम लेकर उसने एक बार और जाल डाला पर इस बार
भी वह असफल रहा ,पर एक वजनी पोटली उसके जाल में अटकी । मछुआरे ने पोटली को निकला और टटोला तो झुंझला गया और बोला
-' हाय ये तो पत्थर है !' फिर मन
मारकर वह नाव में चढा ।
बहुत निराशा के साथ कुछ सोचते हुए वह अपने नाव को आगे बढ़ता जा रहा था और मन में आगे के योजनाओं के बारे में सोचता चला जा रहा था । सोच रहा था 'कल दुसरे किनारे पर जाल डालूँगा । सबसे
छिपकर ...उधर कोई नही जाता ....वहां बहुत सारी मछलियाँ पकड़ी जा सकती है ... । '
मन चंचल था तो फिर हाथ कैसे स्थिर रहता ? वह एक हाथ से उस पोटली के पत्थर को एक -एक करके नदी
में फेंकता जा रहा था । पोटली खाली हो गयी । जब एक पत्थर बचा था तो अनायास ही उसकी नजर उसपर गयी तो वह स्तब्ध
रह गया । उसे अपने आँखों पर यकीन नही हो रहा था , यह क्या ! ये तो ‘नीलम ’ था ।
मछुआरे के पास अब पछताने के अलावा कुछ नही बचा था । नदी के बीचोबीच अपनी नाव में बैठा वह सिर्फ अब अपने को कोस रहा
था ।
प्रकृति और प्रारब्ध ऐसे ही न जाने कितने नीलम हमारी झोली में डालता रहता है जिन्हें पत्थर समझ हम ठुकरा देते
हैं।
3 टिप्पणियां:
सुन्दर प्रस्तुति -
आभार -
बिल्कुल सही कहा
ham sab kabhi kabhi aisee galti karte hi rahte hain .sundar prastuti .
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