सोमवार, 2 जुलाई 2012

आस्था और विश्वास

पर्वतरोहियों का एक दल एक अजेय पर्वत पर विजय पाने के लिए निकला। उनमें एक अतिउत्साही पर्वतरोही भी था , जो यह चाहता था कि पर्वत के शिखर पर विजय पताका फ़हराने का श्रेय उसे ही मिले । रात के घने अंधेरे में वह अपने तम्बू से चुपके से निकल पड़ा और अकेले ही उसने पर्वत पर चढ़ना आरंभ कर दिया । उसके साथी इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ थे कि उनका एक साथी इतना उत्साही है कि वह उन्हें बिना बताए , अकेला ही रात के अंधकार में पर्वत पर चढ़ने का प्रयास कर रहा है ।

बहुत प्रयास  करने के बाद शिखर जब कुछ ही दुर प्रतीत हो रहा था , तभी अचानक उसका पैर फिसल गया और वह तेजी से नीचे की तरफ़ गिरने लगा। उसे अपनी मृत्यु सामने ही दिख रही थी , लेकिन उसकी कमर से बंधी रस्सी ने झटके से उसे रोक दिया। रात इतनी अंधेरी थी कि  उसे नीचे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । वह अन्दर से बहुत डर गया था । रस्सी को जकड़कर ऊपर पहुंच पाना भी संभव नहीं था ।

बचने की कोई सूरत न पाकर वह चिल्लाया-'हे ईश्वर मेरी रक्षा करो !'

तभी उसे एक गंभीर स्वर सुनाई दिया -' तुम मुझ से क्या चाहते हो ?'

पर्वतरोही बोला -' हे ईश्वर , मेरी रक्षा करो !'

' क्या तुम्हे सच में विश्वास है कि मैं तुम्हारी रक्षा कर सकता हुं ?'

' हा ईश्वर ! मुझे तुम पर पूरा भरोसा है ।' पर्वतरोही कांपती आवाज़ में बोला ।

'ठीक है , अगर तुम्हें मुझ पर विश्वास है , तो अपनी कमर से बंधी रस्सी काट दो ।'

यह सुनकर पर्वतरोही का दिल डूबने लगा । वह अन्दर ही अन्दर बहुत डर चुका था । कुछ क्षण के लिए वहां एक चुप्पी सी छा गई और उस पर्वतरोही ने अपनी पूरी शक्ति से रस्सी को पकड़े रहने का निश्चय कर लिया । अगले दिन बचाव दल जब उसे ढूंढने निकला , तो उसे रस्सी के सहारे लटका हुआ पर्वतरोही का ठंड से जमा हुआ शव मिला । उसके हाथ रस्सी को मजबूती से थामे थे और वह धरती से केवल दस फुट की उंचाई पर था । यदि उसने रस्सी को छोड़ दिया होता , तो वह पर्वतीय ढलान से लुढ़कता हुआ मामुली नुकसान के साथ जीवित बच गया होता ।

ईश्वर में सम्पुर्ण आस्था और विश्वास रखना सहज नहीं है ।