उदयपुर
नाम का एक राज्य था। राजा रत्नेश का शासन चल रहा था। वे बड़े लापरवाह और
कठोर प्रकृति के थे। राज्य में निर्धनता आसमान को छू रही थी। प्रजा रत्नेश
का आदर-सम्मान करना भूल चुकी थी। राजा को प्रणाम-नमस्कार किए बिना लोग अपना
मुख मोड़ लेते थे। प्रजा के व्यवहार से रत्नेश स्वयं को अपमानित महसूस कर
रहा था।
प्रजा के इस व्यवहार का कारण रत्नेश समझ नहीं पा रहा था।
एक दिन रत्नेश ने मंत्री से कहा - 'मंत्रीवर! आज हमारा मन यहाँ घुटने लगा है। जंगलों में भ्रमण करने से शायद घुटन मिट जाए।
बस वे दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर जंगल की ओर निकल पड़े।
दोनों
एक बड़े पर्वत के पास पहुँचे। फागुन का महीना था। धूप चढ़ने लगी थी। थोड़ी
देर तक सुस्ताने के लिए दोनों एक घने पेड़ के नीचे रुके। घोड़े से उतरते
हुए रत्नेश को एक छोटी सी पर्ण कुटिया दिखाई पड़ी। घने जंगल में कुटिया!
कौन हो सकता है? उन्हें अचरज हुआ।
धीमे
कदमों से रत्नेश कुटिया के पास पहुँचे, पीछे-पीछे गजेंद्र सिंह भी थे।
कुटिया में एक महात्मा थे। उनको देखकर वे दोनों भाव-विभोर हो उठे।
'महात्मा जी! मैं उदयपुर राज्य का राजा रत्नेश हूँ। और ये हमारे मंत्री गजरेंद्र सिंह।' महात्मा जी को राजा ने अपना व मंत्री का परिचय दिया।
'कैसे आना हुआ? महात्मा जी ने चेहरे पर मुस्कुराहट लाकर पूछा।
हम
भ्रमण कर रहे थे। इस पेड़ की शीतल छाँह में सुस्ताने यहाँ रुके तो कुटिया
दिख पड़ी। हमारा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हो गए। मंत्री ने कहा।
हाव-भाव
व मुख की आभा ही से रत्नेश समझ गए कि महात्माजी ज्ञान-दर्शन और शास्त्रों
में निष्णात हैं। राजा ने उनको अपनी व्यथा बताई - 'महात्माजी! मेरे राज्य
की प्रजा मेरा आदर-सम्मान नहीं करती।
प्रजा का तो कर्तव्य बनता है कि वह अपने राजा का आदर करे, किंतु मैं इससे वंचित हूँ।
रत्नेश
के व्यवहार से महात्मा जी परिचित थे। अत: उनको माजरा समझते देर नहीं लगी।
'राजन्! मैं समझ गया हूँ, आप चलिए मेरे साथ।' महात्मा जी बोले और दरिया की
ओर बढ़ गए। उनके पीछे-पीछे रत्नेश और गजेंद्र सिंह चल पड़े।
हरी-भरी
घास उगी थी। घोड़े घास में लीन थे। कुटिया की पूर्व दिशा में पर्वत
श्रृंखलाएँ थीं। पर्वतों से बहने वाले झरने समतल भूमि में एक साथ मिलकर
दरिया बन गए थे।
दरिया
के पास एक चट्टान खड़ी थी। चट्टान के पास पहुँचकर महात्मा रुक गए। राजा
और मंत्री भी अचरज के साथ महात्माजी के पास खड़े थे। राजन्! एक पत्थर उठाइए
और इस चट्टान के ऊपर प्रहार कीजिए। महात्मा ने रत्नेश से कहा।
रत्नेश
हक्के-बक्के रह गए। पर महात्मा जी का आदेश था। अतएव बिना कुछ जाने-समझे
रत्नेश ने एक पत्थर उठाया और जोर से चट्टान के ऊपर प्रहार किया। चट्टान
पर लगते ही वह नीचे गिर पड़ा। राजन्! अब दरिया के तट से थोड़ी गीली
मिट्टी लेकर आइए।' महात्माजी ने फिर आदेश दिया।
राजा एक मुट्ठी गीली मिट्टी के साथ चटपट महात्माजी के पास पहुँचे। राजन्! अब प्रहार कीजिए।' महात्मा ने फिर कहा।
रत्नेश ने जोर लगाकर गीली मिट्टी चट्टान पर फेंकी। गीली मिट्टी नीचे गिरने की बजाय चट्टान पर चिपक गई।
गीली मिट्टी को चिपकी हुई देखकर महात्मा बोले -
'राजन्!
संसार की यही नियति है। संसार कोमलता को आसानी से ग्रहण कर लेता है।
कठोरता को त्याग देता है। इसलिए चट्टान ने गीली मिट्टी को ग्रहण कर लिया
और कठोर पत्थर को त्याग दिया।
राजन्। आपके साथ भी ऐसा ही हुआ है।
मेरे साथ! रत्नेश ने अचरज भरे स्वर में कहा।
हाँ
राजन्! आप अहंकारी व कठोर प्रकृति के हैं। आपका यह व्यवहार राज्य की
उन्नति और सुख-शांति में बाधक बना हुआ है। यह प्रकृति राज्य की प्रजा को
स्वीकार नहीं है। अत: प्रजा आपकी उपेक्षा कर रही है।' महात्मा ने संयत स्वर
में समझाया। सुनते ही राजा का सिर झुक गया।
राजन्! अपने व्यवहार में परिवर्तन लाइए आपको आदर-सम्मान सब मिलेगा।
महात्माजी की नसीहत सुनकर रत्नेश ने उनके चरण पकड़ लिए और बोले - 'महात्मा जी भूल क्षमा हो आपकी शिक्षा शिरोधार्य है।'
विनम्रता से प्रणाम करके दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार हो गए और राजमहल की ओर चल पड़े।