शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

राजा बदल गया

उदयपुर नाम का एक राज्य था। राजा रत्नेश का शासन चल रहा था। वे बड़े लापरवाह और कठोर प्रकृति के थे। राज्य में निर्धनता आसमान को छू रही थी। प्रजा रत्नेश का आदर-सम्मान करना भूल चुकी थी। राजा को प्रणाम-नमस्कार किए बिना लोग अपना मुख मोड़ लेते थे। प्रजा के व्यवहार से रत्नेश स्वयं को अपमानित महसूस कर रहा था।

प्रजा के इस व्यवहार का कारण रत्नेश समझ नहीं पा रहा था।

एक दिन रत्नेश ने मंत्री से कहा - 'मंत्रीवर! आज हमारा मन यहाँ घुटने लगा है। जंगलों में भ्रमण करने से शायद घुटन मिट जाए।
बस वे दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर जंगल की ओर निकल पड़े।

दोनों एक बड़े पर्वत के पास पहुँचे। फागुन का महीना था। धूप चढ़ने लगी थी। थोड़ी देर तक सुस्ताने के लिए दोनों एक घने पेड़ के नीचे रुके। घोड़े से उतरते हुए रत्नेश को एक छोटी सी पर्ण कुटिया दिखाई पड़ी। घने जंगल में कुटिया! कौन हो सकता है? उन्हें अचरज हुआ।

धीमे कदमों से रत्नेश कुटिया के पास पहुँचे, पीछे-पीछे गजेंद्र सिंह भी थे। कुटिया में एक महात्मा थे। उनको देखकर वे दोनों भाव-विभोर हो उठे।
'महात्मा जी! मैं उदयपुर राज्य का राजा रत्नेश हूँ। और ये हमारे मंत्री गजरेंद्र सिंह।' महात्मा जी को राजा ने अपना व मंत्री का परिचय दिया।
'कैसे आना हुआ? महात्मा जी ने चेहरे पर मुस्कुराहट लाकर पूछा।
हम भ्रमण कर रहे थे। इस पेड़ की शीतल छाँह में सुस्ताने यहाँ रुके तो कुटिया दिख पड़ी। हमारा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हो गए। मंत्री ने कहा।
हाव-भाव व मुख की आभा ही से रत्नेश समझ गए कि महात्माजी ज्ञान-दर्शन और शास्त्रों में निष्णात हैं। राजा ने उनको अपनी व्यथा बताई - 'महात्माजी! मेरे राज्य की प्रजा मेरा आदर-सम्मान नहीं करती।
प्रजा का तो कर्तव्य बनता है कि वह अपने राजा का आदर करे, किंतु मैं इससे वंचित हूँ।

रत्नेश के व्यवहार से महात्मा जी परिचित थे। अत: उनको माजरा समझते देर नहीं लगी। 'राजन्! मैं समझ गया हूँ, आप चलिए मेरे साथ।' महात्मा जी बोले और दरिया की ओर बढ़ गए। उनके पीछे-पीछे रत्नेश और गजेंद्र सिंह चल पड़े।

हरी-भरी घास उगी थी। घोड़े घास में लीन थे। कुटिया की पूर्व दिशा में पर्वत श्रृंखलाएँ थीं। पर्वतों से बहने वाले झरने समतल भूमि में एक साथ मिलकर दरिया बन गए थे।

दरिया के पास एक चट्‍टान खड़ी थी। चट्‍टान के पास पहुँचकर महात्मा रुक गए। राजा और मंत्री भी अचरज के साथ महात्माजी के पास खड़े थे। राजन्! एक पत्थर उठाइए और इस चट्‍टान के ऊपर प्रहार कीजिए। महात्मा ने रत्नेश से कहा।

रत्नेश हक्के-बक्के रह गए। पर महात्मा जी का आदेश था। अतएव बिना कुछ जाने-समझे रत्नेश ने एक पत्थर उठाया और जोर से चट्‍टान के ऊपर प्रहार किया। चट्‍टान पर लगते ही वह नीचे गिर पड़ा। राजन्! अब दरिया के तट से थोड़ी गीली मिट्‍टी लेकर आइए।' महात्माजी ने फिर आदेश दिया।

राजा एक मुट्‍ठी गीली मिट्‍टी के साथ चटपट महात्माजी के पास पहुँचे। राजन्! अब प्रहार कीजिए।' महात्मा ने फिर कहा।

रत्नेश ने जोर लगाकर गीली मिट्‍टी चट्‍टान पर फेंकी। गीली मिट्‍टी नीचे गिरने की बजाय चट्‍टान पर चिपक गई।
गीली मिट्‍टी को चिपकी हुई देखकर महात्मा बोले -
'राजन्! संसार की यही नियति है। संसार कोमलता को आसानी से ग्रहण कर लेता है। कठोरता को त्याग देता है। इसलिए चट्‍टान ने गीली मिट्‍टी को ग्रहण कर लिया और कठोर पत्थर को त्याग दिया।

राजन्। आपके साथ भी ऐसा ही हुआ है।
मेरे साथ! रत्नेश ने अचरज भरे स्वर में कहा।
हाँ राजन्! आप अहंकारी व कठोर प्रकृति के हैं। आपका यह व्यवहार राज्य की उन्नति और सुख-शांति में बाधक बना हुआ है। यह प्रकृति राज्य की प्रजा को स्वीकार नहीं है। अत: प्रजा आपकी उपेक्षा कर रही है।' महात्मा ने संयत स्वर में समझाया। सुनते ही राजा का सिर झुक गया।

राजन्! अपने व्यवहार में परिवर्तन लाइए आपको आदर-सम्मान सब मिलेगा।
महात्माजी की नसीहत सुनकर रत्नेश ने उनके चरण पकड़ लिए और बोले - 'महात्मा जी भूल क्षमा हो आपकी शिक्षा शिरोधार्य है।'
विनम्रता से प्रणाम करके दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार हो गए और राजमहल की ओर चल पड़े।

रविवार, 12 जनवरी 2014

भाग्य और पुरुषार्थ


एक बार दो राज्यों के बीच युद्ध की तैयारियां चल रही थीं। दोनों के शासक एक प्रसिद्ध संत के भक्त थे। वे अपनी-अपनी विजय का आशीर्वाद मांगने के लिए अलग-अलग समय पर उनके पास पहुंचे।

पहले शासक को आशीर्वाद देते हुए संत बोले, ‘तुम्हारी विजय निश्चित है।

दूसरे शासक को उन्होंने कहा, ‘तुम्हारी विजय संदिग्ध है।

दूसरा शासक संत की यह बात सुनकर चला आया किंतु उसने हार नहीं मानी और अपने सेनापति से कहा, ‘हमें मेहनत और पुरुषार्थ पर विश्वास करना चाहिए। इसलिए हमें जोर-शोर से तैयारी करनी होगी। दिन-रात एक कर युद्ध की बारीकियां सीखनी होंगी। अपनी जान तक को झोंकने के लिए तैयार रहना होगा।

इधर पहले शासक की प्रसन्नता का ठिकाना न था। उसने अपनी विजय निश्चित जान अपना सारा ध्यान आमोद-प्रमोद व नृत्य-संगीत में लगा दिया। उसके सैनिक भी रंगरेलियां मनाने में लग गए। 

निश्चित दिन युद्ध आरंभ हो गया। 

जिस शासक को विजय का आशीर्वाद था, उसे कोई चिंता ही न थी। उसके सैनिकों ने भी युद्ध का अभ्यास नहीं किया था। 

दूसरी ओर जिस शासक की विजय संदिग्ध बताई गई थी, उसने व उसके सैनिकों ने दिन-रात एक कर युद्ध की अनेक बारीकियां जान ली थीं। उन्होंने युद्ध में इन्हीं बारीकियों का प्रयोग किया और कुछ ही देर बाद पहले शासक की सेना को परास्त कर दिया।

अपनी हार पर पहला शासक बौखला गया और संत के पास जाकर बोला, ‘महाराज, आपकी वाणी में कोई दम नहीं है। आप गलत भविष्यवाणी करते हैं।

उसकी बात सुनकर संत मुस्कराते हुए बोले, ‘पुत्र, इतना बौखलाने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारी विजय निश्चित थी किंतु उसके लिए मेहनत और पुरुषार्थ भी तो जरूरी था। भाग्य भी हमेशा कर्मरत और पुरुषार्थी मनुष्यों का साथ देता है और उसने दिया भी है तभी तो वह शासक जीत गया जिसकी पराजय निश्चित थी।

संत की बात सुनकर पराजित शासक लज्जित हो गया और संत से क्षमा मांगकर वापस चला आया। 
 

शुक्रवार, 7 जून 2013

प्रकृति और प्रारब्ध

एक मछुआरा था । उस दिन सुबह से शाम तक नदी में जाल डालकर मछलियाँ पकड़ने की कोशिश करता रहा , लेकिन एक भी मछली जाल में न फँसी ।

जैसे -जैसे सूरज डूबने लगा , उसकी निराशा गहरी होती गयी । भगवान का नाम लेकर उसने एक बार और जाल डाला  पर इस बार भी वह असफल रहा ,पर एक वजनी पोटली उसके जाल में अटकी । मछुआरे ने पोटली को निकला और टटोला तो झुंझला गया और बोला -' हाय ये तो पत्थर है !' फिर मन मारकर वह नाव में चढा ।

बहुत निराशा के साथ कुछ सोचते हुए वह अपने नाव को आगे बढ़ता जा रहा था और मन में आगे के योजनाओं के बारे में सोचता चला जा रहा था । सोच रहा था 'कल दुसरे किनारे पर जाल डालूँगा । सबसे छिपकर ...उधर कोई नही जाता ....वहां बहुत सारी मछलियाँ पकड़ी जा सकती है ... '

मन चंचल था तो फिर हाथ कैसे स्थिर रहता ? वह एक हाथ से उस पोटली के पत्थर को एक -एक करके नदी में फेंकता जा रहा था । पोटली खाली हो गयी । जब एक पत्थर बचा था तो अनायास ही उसकी नजर उसपर गयी तो वह स्तब्ध रह गया । उसे अपने आँखों पर यकीन नही हो रहा था , यह क्या ! ये तोनीलमथा

मछुआरे के पास अब पछताने के अलावा कुछ नही बचा था नदी के बीचोबीच अपनी नाव में बैठा वह सिर्फ अब अपने को कोस रहा था ।

प्रकृति और प्रारब्ध ऐसे ही न जाने कितने नीलम हमारी झोली में डालता रहता है जिन्हें पत्थर समझ हम ठुकरा देते हैं।

रविवार, 3 मार्च 2013

मन का राजा

राजा भोज वन में शिकार करने गए लेकिन घूमते हुए अपने सैनिकों से बिछुड़ गए और अकेले पड़ गए। वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे। तभी उनके सामने से एक लकड़हारा सिर पर बोझा उठाए गुजरा। वह अपनी धुन में मस्त था। उसने राजा भोज को देखा पर प्रणाम करना तो दूर, तुरंत मुंह फेरकर जाने लगा।

भोज को उसके व्यवहार पर आश्चर्य हुआ। 

उन्होंने लकड़हारे को रोककर पूछा, ‘तुम कौन हो?’ 

लकड़हारे ने कहा, ‘मैं अपने मन का राजा हूं। 

भोज ने पूछा, ‘अगर तुम राजा हो तो तुम्हारी आमदनी भी बहुत होगी। कितना कमाते हो?’  

लकड़हारा बोला, ‘मैं छह स्वर्ण मुद्राएं रोज कमाता हूं और आनंद से रहता हूं।’ 

भोज ने पूछा, ‘तुम इन मुद्राओं को खर्च कैसे करते हो?’ 

लकड़हारे ने उत्तर दिया, ‘मैं प्रतिदिन एक मुद्रा अपने ऋणदाता को देता हूं। वह हैं मेरे माता पिता। उन्होंने मुझे पाल पोस कर बड़ा किया, मेरे लिए हर कष्ट सहा। 

दूसरी मुद्रा मैं अपने ग्राहक असामी को देता हूं ,वह हैं मेरे बालक। मैं उन्हें यह ऋण इसलिए देता हूं ताकि मेरे बूढ़े हो जाने पर वह मुझे इसे लौटाएं।

तीसरी मुद्रा मैं अपने मंत्री को देता हूं। भला पत्नी से अच्छा मंत्री कौन हो सकता है, जो राजा को उचित सलाह देता है ,सुख दुख का साथी होता है। 

चौथी मुद्रा मैं खजाने में देता हूं। 

पांचवीं मुद्रा का उपयोग स्वयं के खाने पीने पर खर्च करता हूं क्योंकि मैं अथक परिश्रम करता हूं। 

छठी मुद्रा मैं अतिथि सत्कार के लिए सुरक्षित रखता हूं क्योंकि अतिथि कभी भी किसी भी समय आ सकता है। उसका सत्कार करना हमारा परम धर्म है।

 राजा भोज सोचने लगे, ‘मेरे पास तो लाखों मुद्राएं है पर जीवन के आनंद से वंचित हूं।’ 

लकड़हारा जाने लगा तो बोला, ‘राजन् मैं पहचान गया था कि तुम राजा भोज हो पर मुझे तुमसे क्या सरोकार। 

भोज दंग रह गए।

बुधवार, 1 अगस्त 2012

ताबूत

एक किसान बहुत बूढ़ा होने के कारण खेतों में काम नहीं कर सकता था।  वह सारा दिन खेत के किनारे पेड़ की छाँव में बैठा रहता|  उसका बेटा खेत में काम करता रहता और रह-रह के सोचता कि  उसके पिता का जीवन अब व्यर्थ है क्योंकि वह कोई काम करने लायक नहीं रहे।  यह सोच-सोच कर उसका बेटा एक दिन इतना दुखी हो गया कि उसने लकड़ी का एक ताबूत बनाया और उसे घसीट कर पेड़ के पास ले गया।

उसने अपने पिता को उस ताबूत में लेटने के लिए कहा।  

बूढ़ा किसान एक शब्द भी बोले बिना उस ताबूत में लेट गया।  

ताबूत का ढक्कन बंद करके बेटा ताबूत को घसीटता हुआ खेत के किनारे ले गया जहाँ एक गहरी खाई थी।  

जैसे ही बेटा ताबूत को खाई में फैंकने लगा, ताबूत के अंदर से पिता ने उसे पुकारा।  

बेटे ने ताबूत खोला तो अंदर लेटे उसके पिता ने शांत भाव से कहा -"मैं जानता हूँ कि तुम मुझे खाई में फैंकने वाले हो पर उससे पहले मैं तुम्हें कुछ कहना चाहता हूँ।" 

बेटे ने पूछा कि अब क्या है?   

तब उसके पिता ने कहा कि तुम चाहो तो बेशक मुझे खाई में फैंक दो पर इस बढ़िया ताबूत को नहीं फैंको।  

भविष्य में तुम्हारे बूढ़े होने पर तुम्हारे बच्चों को इसकी जरुरत पड़ेगी।